बाल ठाकरे की तरह भाषण देने में निपुण हैं राज ठाकरे, फिर भी MNS के पतन की हुई शुरुआत

अपनी स्थापना के 13 साल बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) इस बार लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेगी. मंगलवार (19 मार्च) को एक बहुप्रतीक्षित रैली में राज ठाकरे ने ख़ुद ही इस बात की घोषणा की. यह पहला मौक़ा होगा जब राज ठाकरे की पार्टी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेगी. दिलचस्प बात यह है कि राज के भाषणों को सुनने के लिए उनकी रैली में अभी भी भारी संख्या में लोग आते हैं. आज भी उनके समर्थक सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं. टीवी चैनल उनका बयान लेने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि उनके बयान से इन चैनलों की टीआरपी काफ़ी बढ़ जाती है. पर सवाल उठता है कि जब इतना कुछ उनके पक्ष में है, तो फिर राज क्यों अपनी इस लोकप्रियता को वोट में तब्दील नहीं कर पा रहे हैं?

महाराष्ट्र में राज का उदय
जब 2008-09 में महाराष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज पर राज का उदय हुआ तो कहा गया कि राज्य की राजनीति में अब सब कुछ पहले जैसा नहीं रहेगा. राज ठाकरे का नाम महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि पूरे उत्तरी भारत में लोगों की ज़ुबान पर चढ़ने लगा. वह एक ऐसा समय था जब राज्य में ‘माटी के सपूत’ के गरम हो उठे मुद्दे पर महाराष्ट्र्र से उत्तर भारतीयों का पलायन हर जगह सुर्खियों में था. बाल ठाकरे की शिवसेना से अलग होकर राज ठाकरे ने 2006 में नई पार्टी बनाई. उन्होंने उस समय कहा कि उनकी पार्टी का मुख्य लक्ष्य है 'मराठी मानुस' का अभिमान. यह पार्टी ‘मिट्टी के लाल’ के अधिकारों के लिए काम करेगी, ऐसा सोचा गया था. शुरुआती कुछ साल तो पार्टी ने दुकानों और मॉलों में अंग्रेज़ी/हिंदी में लिखे पोस्टरों पर हमले कर अपने ग़ुस्से का इज़हार करने में बिता दिया. इसके बाद एमएनएस ने अपना ध्यान मराठी युवाओं के लिए नौकरियों के मुद्दे पर लगाया और बहुत ही जल्दी यह अभियान निम्न मध्यवर्गीय मराठियों को अच्छा लगने लगा. और उसके बाद ठाकरे कुनबे का यह नेता, नि:सन्देह अपने चाचा बाल ठाकरे की तरह भाषण देने की कला में निपुण है. उनकी रैलियों में आज भी काफ़ी भीड़ जुटती है. पर अपने इन श्रोताओं को वे अपना वफ़ादार मतदाता नहीं बना सके.

चुनावों में एमएनएस का प्रदर्शन ऐसा कभी नहीं रहा जिसके बारे में कहा जाए कि इसने वास्तविक रूप से राजनीति के खेल को बदल दिया. और 2014 का चुनाव तो पार्टी के अस्तित्व के लिए अनर्थकारी साबित हुआ. लोकसभा चुनावों की ही बात नहीं है, एमएनएस उस साल विधानसभा चुनावों में भी कुछ नहीं कर पाया. पूरे राज्य में उसे सिर्फ़ एक सीट मिली और उसका वोट शेयर बहुत ही कम रहा. विधानसभा चुनाव में एमएनएस के जिस एकमात्र विधायक को जीत मिली वे हैं शरद सोनवाने जो हाल ही में पार्टी छोड़ शिवसेना में शामिल हो गए हैं और इस तरह विधानसभा में अब उनका एक भी सदस्य नहीं है.

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